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Wednesday, March 2, 2011

सिंगूर के लिए

चिताओं पे    रोटी    पकाने      लगी  है
सियासत नकाब अब उठानी   लगी है !

ये कहकर फूँक डाला सारी बस्तियों को 
झोपड़िया   महलों को   चिढाने लगी है !

कारें उगाने    के  लिए  उपजाऊ जमीनें 
धन्नासेठों के   नज़रों को भाने लगी है !

अपनी ही जमीनों को छीनता जब देखा
ख़ामोशी    आवाजें     उठाने    लगी है !

हमने  मुफलिसी    का   ये मंजर भी देखा
बच्चों     को रस्सी    पे चलाने लगी है !

अगर उसको    हमसे मोहब्बत नही है
क्यों मिलने  पे पलके झुकाने लगी है !*

खुदा से अजीज़  मैं यक़ीनन हूँ उनको
कसम उनकी छोड़ मेरी खाने लगी है !

मिला है मुझे परदेश में आकर सबकुछ
मगर माँ की रोटी बुलाने     लगी     है !

"अभिजीत" रास्तें में तुम थककर क्यों बैठे
मंजिल सामने     जबके       आने लगी है ! 

* मैं तो अहमद फ़राज़ साहब का शतांश भी नहीं हूँ पर इस ग़ज़ल का ये शेर जिस दिन लिखा था ठीक उसी दिन शाम को अहमद फ़राज़ साहब की लिखी एक ग़ज़ल पढने को मिली, उस दिन लगा की परस्पर विरोधाभाषी शेर भी होते है, देखिये एक मजेदार किसका -
मेरे ग़ज़ल का शेर था 
अगर उसको    हमसे मोहब्बत नही है
क्यों मिलने  पे पलके झुकाने लगी है !
वहीँ फ़राज़ साहब का शेर था
"तुम इसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठे हो "फ़राज़"
उसकी  आदत है निगाहों को झुकाकर मिलना "


1 comment:

  1. dushyant ka sher hai __YAHAA TK AATE AATE SOOKH jAATI HAI KAI NADIYA,MUJHE MALOOM HAI PAANI KAHA THAHRAA HOGA...abhijeet ji..shaayad paani SIYASAT,DHNNASETHO,CAARON AUR MUFLISI pe thahraa hai...aur rhi baat ishq ki..to plke uthi ho ya jhukii....dono hi pyaar ka bayaan krti hai.......
    KAMAAL KI GHJAL.........WAAH..

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