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Saturday, March 12, 2011

मेरी एक ग़ज़ल


बचपन  थी  मगर  शरारत  भी  करने  नहीं  दिया,
किताबों   ने इन परिंदों को उड़ने नहीं दिया।।1।।
                  
  इसलिये रोशन न हुये कुछ सफेदपोशो  के   मकान,
  कुछ  पागलों ने बस्तियों को जलने नहीं दिया।।2।।


सिमतगर दुनिया बादे-वफात भी दुश्मनी निभाती है 
जालिमों ने मेरी कब्र को भी सजने नहीं दिया।।3।।


दहेज  की  आग  में  इक  दिन  तो इसे जलना है,
ये  सोच  माँ  ने गर्भ में उसे पलने नहीं दिया।।4।।


हुक्मरानों  ने  भले    ही  बांट डाले   सरहद  को,
हम शायरों ने  दिलों को मगर बंटने नहीं दिया।।5।।                      
   
                                                                             -  अभिजीत
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1 comment:

  1. बहुत खुबसूरत गज़ल ||
    हर शेर तारीफ़ के काबिल ,
    मेरी दाद कबूल किजिये ||

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