बचपन थी मगर शरारत भी करने नहीं दिया,
किताबों ने इन परिंदों को उड़ने नहीं दिया।।1।।इसलिये रोशन न हुये कुछ सफेदपोशो के मकान,
कुछ पागलों ने बस्तियों को जलने नहीं दिया।।2।।
सिमतगर दुनिया बादे-वफात भी दुश्मनी निभाती है
जालिमों ने मेरी कब्र को भी सजने नहीं दिया।।3।।
दहेज की आग में इक दिन तो इसे जलना है,
ये सोच माँ ने गर्भ में उसे पलने नहीं दिया।।4।।
हुक्मरानों ने भले ही बांट डाले सरहद को,
हम शायरों ने दिलों को मगर बंटने नहीं दिया।।5।।
- अभिजीत
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बहुत खुबसूरत गज़ल ||
ReplyDeleteहर शेर तारीफ़ के काबिल ,
मेरी दाद कबूल किजिये ||