करीब आओ कुछ ऐसे की किसी को खबर न हो
दुआएं इतनी भी मत दो की दुआ में असर न हो !
एक रात ही नवाज़े मगर इतनी शर्त है
वो रात हो ऐसी कभी जिसकी सहर न हो !
न ज़िक्र करो उनका , जख्मों को हवा न दे!
कहीं हम बेखुदी में सबब-ए-उदासी बता न दे !
लुत्फ़ आने लगी है अब इंतज़ार में
वो आके मज़ा-ए-इंतज़ार कहीं मिटा न दे !
हम ही अतीत थे हम ही वर्तमान रहे थे
मेरे वास्ते ज़माने ने इसलिए दुश्नाम कहे थे
शायद मुझमे भी कुछ बात है पैगम्बरों जैसी
सुना है उनपे भी कई बार कई इलज़ाम लगे थे !
दहेज़ यज्ञ में इस देश की कई बेटियां जली है
कई मासूमो पर गर्भ में ही छुरियां चली है
कैसे बना लेंगे भारत को ये बेहतर
जब आधी आबादी के अस्तित्व पे ही बर्छियां तनी है !
कुछ मज़ा है दर्द में भी इसकी कोई दवा न दे
इन ठंढी हवाओं को रोकिये ये कहीं हमें सुला न दे
वो घबरा के न उठ जाये कहीं पहलू से मेरे
ये वस्ल की रात है , मुआजिन तू अजां न दे !
जख्मे-मोहब्बत ऐसा मिला न कहा जाये न सहा जाये
वो बेबफा है लाख सही, पर उसके बिना न रहा जाये
कूए-ए-यार में हमको जाना था, जुम्बिश ही नहीं है पांव में
एक दरिया उधर को जाती है, चलो साथ उसी के बहा जाये !
वो झूठे-सच्चे खाब दिखाके चली गयी
अपने हुस्न को हिजाब में छिपा में चली गयी !
वो चाहती थी किसी और को न चाहे कभी हम
इसलिए नूर महताब का वो चुरा के चली गयी !
-"अभिजीत"
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