मेरी कुछ शायरी :मेरा परिचय
लोग जब मेरी ग़ज़लों को पढतें हैं तो उनके दो ही सवाल होते है, पहला आप ग़ज़ल लिखते कैसे हो ? और दूसरा ,आपके साथ कुछ हुआ है क्या ? मुझे लगता है , मैं ही नहीं दुनिया का कोई भी शायर इस सवाल का जबाब नहीं दे सकता ! अलबत्ता किसी बड़े शायर ने इसका माकूल जबाब देने की कोशिश जरूर की है-
"रूह जब बज़्म में आये तो ग़ज़ल होती है, या कोई दिल को दुखाये तो ग़ज़ल होती है,
इश्क की आतिशे-खामोश जब चुपके-२ ,आग सीने में लगाये तो ग़ज़ल होती है !"
जिन्दगी में ज्यादा तो नहीं लिखा, ग़ज़ल की बात करूँ तो बमुश्किल ३५ ही लिखे होंगे, लिखे तो और भी थे पर और बेहतर की तलाश ने अपने हाथो ही उन गजलों को जलवा दिया ! मुझे अपनी ग़ज़ल लिखने से बेहतर उर्दू के नामवर और अज़ीम फनकारों की ग़ज़ल पढना पसंद था, इसे पसंद नहीं जूनून कहिये पर उर्दू ग़ज़ल और शेर-ओ-शायरी के प्रति दीवानगी का आलम इतना था और रहा है कि उसके लिए किसी खूबसूरत लडकी एक साथ वक़्त गुजरने का मौका भी छोड़ दूं !
मेरे लिखे ज्यादातर शेर दुःख, दर्द, विरह और निराशा को ओढ़े हुए हैं ,इसकी वजह भी है , मैंने जितने भी शेर कहे , उनसे कोई भी मेरे तत्कालीन मन:स्थिति का अंदाज़ा लगा सकता है, कभी-२ तो दो ग़ज़ल के बीच का फासला ६ महीने तक भी हो जाता रहा है !
* वर्तमान हालत को देखकर भविष्य दर्शन फनकारों की खासियत होती है, इसके मुतल्लिक ये लिखा था-
"नंगापन, बदकारी , जिना ये सब तो अभी कुछ भी नहीं.
आने वाला वक़्त देखो और क्या-२ लायेगा !"
* लोग भले ही मुझे स्त्री विरोधी, पुरुषवादी और न जाने क्या-२ संज्ञा देते हो, पर मेरे लिए दुनिया में सबसे ज्यादा कुंठित करने वाला मौजू है , कन्या भ्रूण-हत्या और दहेज़ के लिए किये जा रहे जुल्म !
बेटी के जन्म की ख़ुशी मातम में बदल जाये तो समज की इस घृणित व्यवस्था से उब होने लगती है-
"घर में लक्ष्मी आई है. पर फिर भी उदासी छाई है
बिटिया की शादी के लिए अब रूपया कहाँ से आएगा !"
तो इस शेर में दहेज़ और भ्रूण-हत्या दोनों पर लिखा-
"दहेज़ की आज में एक दिन तो इसे जलना है,
ये सोच माँ ने गर्भ में उसे पलने नहीं दिया !"
तो कभी मेरी कलम आधी आबादी के अस्तित्व पर ही संकट बने ठेकेदारों को ललकारते हुए कहती है-
दहेज़ यज्ञ में इस देश की कई बेटियां जली है
कई मासूमो पर गर्भ में ही छुरियां चली है
कैसे बना लेंगे भारत को ये बेहतर !
जब आधी आबादी के अस्तित्व पे ही बर्छियां तनी है !
* भारत की आजादी के इतने साल बीत गए पर देश आज भी वहीं खड़ा है जहाँ आज से ६४ साल पहले खड़ा हुआ था, नौकरशाही और सत्ता के दलालों और बिचौलियों के चंगुल में कराह रहे किसी रामू का दर्द इस तरह बयां हुआ-
"ग्राम-प्रधान के दर पे बैठा अपना रामू सोच रहा,
इंदिरा आवास के एवज में ये रिश्वत कितना खायेगा !"
पेट की खातिर बच्चो को काम करते हुए देखने की वेदना -
"हमने मुफलिसी का वो मंज़र भी देखा
बच्चों को रस्सी पे चलाने लगी है !"
पहले हम विदेशियों की लाठी खाते थे अब अपने ही वोट से चुने हुयी "रक्षकों " की खा रहें हैं,
"चिताओं पे रोटी पकाने लगी है, सियासत नकाब अब उठाने लगी है,
ये कहकर फूंक डाला सारी बस्तियों को, झोपड़ियाँ महलों को चिढ़ाने लगी है !"
जब किसी गरीब के अरमानों पे बुलडोजर चला कर विकास का स्वप्न देखा जा रहा हो तो कोई शायर इसके सिवा और क्या लिखेगा ?-
"अब तक सुना था खेतों में गेहूं, चावल ही उगते हैं
अब सुना है कोई धन्ना सेठ , कारें इसमें उपजायेगा !"
तो कई बार इस जुल्मो-सितम पर उठने वाली हर आवाज़ का समर्थन कुछ यूं किया-
"अपनी ही जमीनों को छीनता जब देखा,
ख़ामोशी आवाजें उठाने लगी है !"
* प्यार की पीछे भागने वाले की व्यथा पर चोट कुछ इस तरह बयां की-
"मोहब्बत के लिए सिर्फ समर्पण ही नहीं काफी इस ज़माने में,
उस अमीरजादे के जितना पैसा कहाँ से लाओगे !"
* प्रेम खुद को भुला देने का खूबसूरत एहसास है-
"मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ , कुछ खबर नहीं है मुझको
उस शोख नज़र ने जबसे है चैन मेरा छिना !
मेरी कश्ती-ए-जिन्दगी का डूबना तो तय था
मेरी जिन्दगी थी तुझ बिन, बिन पतवार की सफीना "
* जिन्दगी में कुछ ऐसे भी अरमान थे जो कभी पूरा न हो सके-
"लब-ए-रुखसार से होती आगाज़ सुबह, गेसू-ए-यार में ढलती शाम कभी
इस अफसाने को मैं है, हकीकत कभी बना न सका !"
एक ये भी अरमान था जो अरमान ही रह गया, काश कभी सच में ये कह पता-
'खुदा से अजीज़ मैं यक़ीनन हूँ उनको,
कसम उनकी छोड़ मेरी खाने लगी है !"
* मेरी माँ भी ईश्वर के साथ मेरी इबादत में शामिल है, तो भला अपनी गजलों में उसे कैसे छोड़ सकता हूँ,
"जन्नत माँ के क़दमों तले है , बाप तो बस दरवाज़ा है
देखो नबी-करीम (सल्ल0) ने माँ को क्या आला मक़ाम दिया !'
जिन्दगी का ज्यादातर लम्हा माँ से दूर रहकर गुजारा है , इसलिए लिखा था-
"मिला है मुझे परदेश में आके सबकुछ
मगर माँ की रोटी बुलाने लगी है !"
तो कभी ये भी लिखा-
" जाहिद मेरी इबादत में खुदा के साथ शरीक है मेरी माँ
गर हुआ ये कुफ्र अगर तो , जा दोजख अपने नाम किया !"
* मुझे लगता है की इन्सान का सबसे बदतरीन वक़्त वो होता है जब उसे किसी से मोहब्बत होती है, इश्क के बुरे अंजाम से वाकिफ भी रहा हूँ, कुछ शेर देखिये-
"और तुझी से पूछा करता था जो तेरे कूचे का पता,
तुम्हे भी क्या वो आशिक गुमनाम याद है !
मेरी नींद गयी , चैन गयी चीन गया सब-ओ-करार
और तुझको अभी तलक न मेरा नाम याद है !"
एक और है-
मोहब्बत करके आपसे ये सजा मिली मुझे
जिन्दा हूँ और जीने का गुमां नहीं होता !"
* कभी कोई हमसफ़र या दिलासा देने वाला न मिला तो खुद को ही दिलासा देने लगा-
"अभिजीत रास्ते में तुम थक कर क्यों बैठे
मंजिल सामने जब के आने लगी है !!"
* तो कई बार मजहब के ठेकेदारों को चुनौतियाँ देता हुआ भी काफी कुछ लिखा-
"क़यामत से पहले "अभिजीत" हरम में नहीं जायेगा
जाहिद से कह दो हमें अभी कई काम याद है !"
"फिर तो ईमान बचानी हमें मुश्किल होगी
वो बुत कहीं खुदा न हो जाये !"
मैखाने में मुअज्जिन को मैं देख के समझा
क्यों मस्जिदों से आजकल अजां नहीं होता !"
* कई बार विरह और उपेक्षा की वेदना कुछ इस तरह बाहर आये-
"राहे-मोहब्बत तय होती क्योंकर, जो यार नहीं था साथ में
दो-चार कदम साथ चलने को भी हमराह उसे मैं बना न सका !
हम मरीज़े-गम थे उनकी मोहब्बत में सारा जहाँ तर्क किये
पर वो हमारे वास्ते एक शख्स को भी भुला न सका !"
एक ये भी- बुत बना बैठा हुआ हूँ, यूं अपने गमखाने में
की लुत्फ़ सी आने लगी है अब तो इस वीराने में !"
तो एक बार लिखा- "अभिजीत अक्सर तन्हाइयों में बस उसे याद करता रहा
और वो भूल गयी हमें गुजरे ज़माने की तरह !"
* कई बार तो हजारों बार परिभाषित मोहब्बत को भी परिभाषा देने की कोशिश की-
"मोहबत करना भी किसी इबादत से कम नहीं होता,
पलकें बिछाये रहतें है आशिक किसी की राहों में !"
या फिर- "प्यार एक मुअम्मा है , जिसमे ये दोस्त
इब्तदा होती है, इन्तहा नहीं होती !"
* जिसके लिए आप अपनी तमाम बेहतरीन रचनाएँ लिख रहें हो और उसे ये सुना भी न पाए, तो यही कहेंगे न-
"जिनके बहारे-हुस्न से शाहकार थी मेरी हर ग़ज़ल
उसका एक मिसरा भी मैं उसको सुना न सका !"
* अपने चाहत के लिए ये सोच भी ज्यादा तो नहीं है-
"उनके दर-ओ-दीवार पे कहकशा बिछा दो ,
मैं उनकी का खाब हूँ तो चलो सजाओ मुझे !"
और कुछ गलत नहीं अगर जो यार रूठ जाये
प्यार और भी बढ़ता है रूठे यार को मनाने में !
"हो सकता है जन्नत में हो और भी हसीना
पर वो परीवश चेहरा इस धरती पर कहीं ना !"
* स्कूल जाने वाले बच्चों की पीठ पर भारी बस्ता देखा तो-
"बचपन थी मगर शरारत भी करने नहीं दिया
किताबों ने इन परिंदों को उड़ने नहीं दिया !"
* मेरी लेखनी ने मुझे बहुत नाम कमाने का मौका दिया, इस कम उम्र में ही मेरे कलम के कारण मिले कई पुरस्कार इसके गवाह हैं , तो भला इसपे क्यों न लिखता -
"हर शख्स की जुबान पे आपका ही जिक्र है
अभिजीत आप तो बहुत मशहूर हो गए !"
ये वाकया तो हमेशा याद रहेगा !!!
"अगर उसको हमसे मोहब्बत नहीं है
क्यों मिलने पे पलकें झुकाने लगी है !!"
जिस दिन ये शेर लिखा उसी दिन रात को Etv उर्दू पे महफ़िल-ए-मुशायरा देख रहा था, जिसमे अहमद फ़राज़ साहब ये शेर सुना रहे थे, सुनने के बाद तो लगा की अरे आज मैंने जो शेर लिखा है , फ़राज़ साहब का ये शेर तो बिलकुल उसका उल्टा है ! देखिये जरा-
"हर अदावत में मोहब्बत को सजा कर मिलना
रस्मे-दुनिया है, हकीकत को छुपा कर मिलना ,
तुम इसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठे हो फ़राज़
उसकी आदत है निगाहों को झुकाकर मिलना !!
और अंत में-
* कईयों की लिए अभिजीत उम्मीद कि रौशनी है और भविष्य की आशा, तो कई जो मुझसे कभी मिले नहीं लेकिन मेरा बारे में दूसरों से सुनकर ही भ्रामक धारणा पाले हुए थे , और इतनी नफरत (नफरत की वजह नहीं कहूँगा यहाँ ) करते थे कि एक बार ऐसे ही किसी शख्श से मुलाकात हुयी जो मुझसे बिना मिले ही नफरत करता था (यहाँ तक कि वो कहता था कि अगर सरकार मुझे किसी एक के क़त्ल कि इजाजत दे जिसके लिए मुझे सजा नहीं दी जाएगी, तो मैं अभिजीत का क़त्ल करूँगा, I Love to kill him ), जब मुझसे मिला तो मिलने की बाद मेरे slam -book में मेरे लिए इतना ही लिखा , तिश्ना का एक शेर -
"क्यों न हम उसे दिल-ओ-जान से चाहे तिश्ना
वो जो एक दुश्मने-जां प्यार भी करता जाये !"
मैं ऐसा ही हूँ, तो इसे अपने शेर में क्यों न बयां करूँ-
"अभिजीत के बारे में सुना करते थे सबका बाप है,
सामने आया तो मुझको एक छोटा बच्चा लगा !"
बताइए एक "शायर " के रूप में "अभिजीत" कैसा लगा आपको ! अगले आलेख में "ज्योतिष" अभिजीत का परिचय !
-अभिजीत
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ReplyDeleteअभिजीत जी आपके अंदाजे-बयां का कोई तोड़ नहीं
ReplyDeleteकई बार पढ़ा, पर दिल है कि मानता नहीं ||
आप ऐसे शायर हैं जिनसे मुझे बहुत कुछ सिखने को मिला ||
और यह बात मैं मरकर भी नहीं भूल सकता ||
आपकी कलम को दिल से सलाम ||
शायर " अशोक "
bhai tune mera comment remove kar dia
ReplyDeletereally bad......waise reading it again....nind nahi aa rahi na!!! :D
35 gazal likhe hain...aur kehte ho 35 hi???each n evry prose is worth giving a thought...n i must say this reflects a completely different aspect of urs... tmhara jawab nahin...really tm to mashhoor ho....
ReplyDeleteBahut badhiyan bhai.. M really proud of u..
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