कुछ असर तो था मेरी दुआ और आहों में,
कि हमें मिल गई पनाह उनके बांहों में।
है अगर यह कुफ्र तो मुझको खुदा तुम माफ करो,
बुतपरस्ती को नहीं गिनतें हैं हम गुनाहों में।
मोहब्बत करना भी किसी इबादत से नहीं होता,
पलकें बिछाये रहतें हैं आशिक किसी की राहों में।
जमाने की बद निगाहें तेरे हुस्न को रुसवा न करे
आओ छिपा लूं मैं तुम्हें अपने निगाहों में।
हम तो समझे थे तेरे आशिकों में इक हमीं थे,
मगर सूफियों को भी मसरुर देखे हमने खानकाहों में।
अभिजीत
बेहतरीन गज़ल...
ReplyDeleteअनु